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अह्मचर्य]
[१५६ नो सहियं पि विहरेज्जा,
एवमप्या सुरक्खिओ होई ॥२६॥
[सू० श्रु० १, अ० ४, उ० १, गा०५] ब्रह्मचारी स्त्रियो पर कुदृष्टि न डाले। उनके साथ कुकर्म करने का साहस न करे। ठीक वैसे ही उनके साथ विहार अथवा एकान्तवास भी न करे। इस प्रकार स्त्री-सम्पर्क से बचनेवाला ब्रह्मचारी अपनी आत्मा को सुरक्षित रख सकता है।
जतुकुंभे जहा उवज्जोई, संवासं विदू विसीएज्जा ।। २७॥
[सू० श्रु० १, अ० ४, उ० १, गा० २६ ] जैसे अग्नि के पास रहने से लाख का घडा पिघल जाता है, वैसे ही विद्वान् पुरुष भी स्त्री के सहवास से विषाद को प्राप्त होता है, अर्थात् उसका मन सक्षुब्ध बन जाता है।
हत्थपायपडिच्छिन्नं, कन्ननासविगप्पियं । अवि वाससयं नारिं, बंभयारी विवज्जए ॥२८॥
[उत्त० भ० ८, गा० ५६ ] जिस के हाथ-पैर कट चुके हो, नाक-कान बेडोल बन गये हों, तथा जो सौ वर्ष की आयु की हो गई हो ऐसी वृद्धा और कुरूप स्त्री का सम्पर्क भी ब्रह्मचारी को छोड देना चाहिये। अहसेऽणुतप्पई पच्छा,
भोच्चा पायसं व विसमिस्सं ।