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________________ १५४] [श्री महावीर-वचनामृत मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं । तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा वजयंति णं ॥१०॥ __ [ दश० अ० ६, गा० १६] यह अब्रह्मचर्य, अधर्म का मूल और महान् दोषो का स्थान है। अतः निर्ग्रन्थ मुनि उसका सदा त्याग करते हैं। इथिओजे न सेवन्ति, आइमोक्खा हु ते जणा॥११॥ [सू० श्रु० १, अ० १५, उ०६] जो पुरुष स्त्रियों का सेवन नहीं करते, वे मोक्ष-मार्ग मे अग्रगण्य होते हैं। विवेचन-इसी प्रकार जो स्त्रियां पुरुष सेवन नहीं करती, वे भी मोक्ष-मार्ग में अग्रगण्य होती हैं। ब्रह्मचर्यव्रत पुरुष तथा स्त्री-दोनों के लिये समान रूप से हितकर है। जे विन्नवणाहिअजोसिया, __ संतिण्णेहि समं वियाहिया । 'तम्हा उडूं ति पासहा, ___ अदक्खु कामाई रोगवं ॥१२॥ [सू० ध्रु० १, न० २, उ० ३, गा० २] काम को रोगरूप समझकर जो पुरुष स्त्रियों का सेवक नहीं वनते, वे मुक्त पुरुष के समान ही है। स्त्री-त्याग के पश्चात् ही मोक्षदर्शन सुलभ है।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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