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ब्रह्मचर्य
[१५५ जहिं नारीणं संजोगा, पूयणा पिट्ठओ कया। सव्वमेयं निराकिच्चा, ते ठिया सुसमाहिए ॥१३॥
[सू० ध्रु० १, अ० ३, उ० ४, गा० १७ ] जिन पुरुषों ने स्त्रीससर्ग और शरीरशोभा को तिलाञ्जलि दे दी है, वे समस्त विनो को जीतकर उत्तम समाधि मे निवास करते है।
देवदाणवगंधबा, जक्खरक्खसकिन्नरा। वंभयारिं नमसंति, दुकरं जे करेंति तं ॥१४॥
[उत्त० अ० १६, गा० १६] अत्यन्त दुष्कर ऐसे ब्रह्मचर्यव्रत की साधना करनेवाले ब्रह्मचारी को देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नरादि सभी देवीदेवता नमस्कार करते हैं।
एस धम्मे धुवे निच्चे, सासए जिणदेसिए । सिद्धा सिज्झन्ति चाणेण, सिझस्सन्ति तहाऽवरे॥१॥
[उत्त० अ० १६, गा० १७ ] यह ब्रह्मचर्य धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और जिनदेशित है, अर्थात् जिनों द्वारा उपदिष्ट है। इसी धर्म के पालन से अनेक जीव सिद्ध बन गये, बन रहे है और भविष्य में भी बनेंगे। वाउच जालमच्चइ, पिया लोगंसि इत्थओ ॥१६॥
[सू० श्रु० १, अ० १५, गा०८] जैसे वायु अग्नि की ज्वाला को पार कर जाता है, वैसे ही महापरानुक्रमी पुरुष इस लोक मे स्त्री-मोह की सीमा का उल्लंघन कर जाते है।