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________________ ब्रह्मचर्य [१५३ __ जैसे महासागर को तैर जानेवाले के लिये गङ्गा नदी तैर जाना सुगम है, ठीक वैसे ही स्त्री-ससर्ग का त्याग करनेवालों के लिये अन्य वस्तुओं का त्याग करना अत्यन्त सरल है। णो रक्खसीसु गिज्झेज्जा, गंडवच्छासु ऽणेगचित्तासु । जाओ पुरिसं पलोभित्ता, __ खेल्लंति जहा व दासेहिं ॥८॥ [उत्त० भ० ८, गा० १८] जिस तरह कोई राक्षसी किसी का सारा रक्त चूसकर उसके प्राण हर लेती है, ठीक उसी तरह पुष्ट स्तनवाली तथा अनेको का ध्यान चित्त में धारण करनेवाली स्त्रियां साधक के ज्ञान-दर्शन आदि सब का अपहरण कर उसकी साधना का नाश कर देती है। ऐसी स्त्री सर्वप्रथम पुरुषो को अपनी ओर आकृष्ट करती है और बाद में उनसे आज्ञाकारी दास के समान कार्य करवाती है।। अबंभचरियं घोरं, पमायं दुरहिट्ठियं । नाऽऽयरंति मुणी लोए, भेयाययणवजिणा ॥६॥ [दश० अ० ६, गा० १५] सयम का भंग करनेवाले रमणीय स्थानो से दूर रहनेवाले साधुपुरुष साधारण जन-समूह के लिये अत्यन्त दुःसाध्य, प्रमाद के कारणरूप और महान् भयङ्कर ऐसे अब्रह्मचर्य का सपने मे भी सेवन नहीं करते।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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