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________________ १५२] [श्री महावीर वचनामृत तवेसु वा उत्तम बंभचरं ॥४॥ [सू० श्रु० १, अ० ई, गा० २३] अथवा तप में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है। विरह अबंभचेरस्स, कामभोगरसन्नुणा । उग्गं महन्बयं बंभ, धारेयब्वं सुदुक्करं ॥५॥ [उत्त न० १६, गा० २६ ] कामभोग का रस जाननेवालों के लिए मंथन-त्याग और उन ब्रह्मचर्य-व्रत धारण करने का कार्य अति कठिन है। मोक्खाभिकंखिस्स उ माणवस्स, संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे । नेयारिसं दुत्थरमत्थि लोए, जहित्यिओ बालमणोहराओ ॥५॥ [उत्त० म०३२, गाः १७] मोक्षार्थी, संसारभोर और धर्मनिष्ठ पुल्यों के लिये इस संसार में वाल जीवों का मन हरण करनेवाली स्त्रियों का परित्याग करने जितना मुशिल कार्य दूसरा कोई नही है। एए य संगे समइक्क मिचा, सुदुत्तरा चेव भवंति सेसा । जहा महासागरमुत्तरिता, नई भवे अवि गंगासमाणा ॥७॥ [उच ३२, गाः १८]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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