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[श्री महावीर वचनामृत तवेसु वा उत्तम बंभचरं ॥४॥
[सू० श्रु० १, अ० ई, गा० २३] अथवा तप में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है। विरह अबंभचेरस्स, कामभोगरसन्नुणा । उग्गं महन्बयं बंभ, धारेयब्वं सुदुक्करं ॥५॥
[उत्त न० १६, गा० २६ ] कामभोग का रस जाननेवालों के लिए मंथन-त्याग और उन ब्रह्मचर्य-व्रत धारण करने का कार्य अति कठिन है। मोक्खाभिकंखिस्स उ माणवस्स,
संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे । नेयारिसं दुत्थरमत्थि लोए,
जहित्यिओ बालमणोहराओ ॥५॥
[उत्त० म०३२, गाः १७] मोक्षार्थी, संसारभोर और धर्मनिष्ठ पुल्यों के लिये इस संसार में वाल जीवों का मन हरण करनेवाली स्त्रियों का परित्याग करने जितना मुशिल कार्य दूसरा कोई नही है। एए य संगे समइक्क मिचा,
सुदुत्तरा चेव भवंति सेसा । जहा महासागरमुत्तरिता, नई भवे अवि गंगासमाणा ॥७॥
[उच ३२, गाः १८]