SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अस्तेय] [१४६ दंतसोहणमाइस्स, अदत्तस्स विवज्जणं । अणवज्जेसणिज्जस्स, गिण्हणा अवि दुक्करं ॥७॥ [ उत्त० अ० १९, गा० २८] दांत कुतरने का तिनका भी उसके मालिक के दिये बिना ग्रहण नही करना, साथ ही निरवद्य और एषणीय वस्तुएं ही ग्रहण करनाये दोनो बाते अत्यन्त दुष्कर है। विवेचन-निरवद्य अर्थात् पापरहित । एषणीय वस्तुएं अर्थात् साधुधर्म के नियमानुसार उपयोग में ली जायं ऐसी वस्तुएं । रूवे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुहिं । अतुढिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥८॥ [उत्त० भ० ३२, गा० २६] मनोहररूप ग्रहण करनेवाला जीव अतृप्त ही रहता है। उसकी आसक्ति बढती हो जाती है, इसलिए तुष्टि-तृप्ति नही होती। अतृप्ति-दोष से दुःखित होकर वह दूसरे की सुन्दर वस्तुओ का लोभी बनकर अदत्त ग्रहण करता है। तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, रूवे अतित्तस्स परिग्गहे य ।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy