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[श्री महावीर-वचनामृत निच्चं तसे पाणिणो थावरे य,
___ जे हिंसंति आयसुहं पडुच्च । जे लूसए होइ अदत्तहारी,
ण सिक्खई सेयवियस्स किंचि ॥॥
[ सूत्र ध्रु० १, अ० ५, उ० १, गा० ४] ___ जो मनुष्य अपने सुख के लिये त्रस तथा स्थावर प्राणियों की निरन्तर हिंसा करता रहता है और जो दूसरे की वस्तुएं विना लौटाये अपने पास रख लेता है अर्थात् चुरा लेता है, वह आदरणीय व्रतों का तनिक भी पालन नही कर सकता। उड् अहेय तिरियं दिसासु,
तसा य जे थावर जे य पाणा । हत्थेहि पाएहि य संजमित्ता,
अदिन्नमन्नेसु य नो गहेज्जा ॥६॥
[सू० श्रु० १, अ० १०, गा० २] आत्मार्थी पुरुष को चाहिये कि वह ऊपर, नीचे और तिरछी दिगाओं मे जहाँ त्रस और स्थावर जीव रहते हैं, उन्हे हाथ-पैरों के आन्दोलन से अथवा अन्य अगों द्वारा किसी प्रकार की यातना न पहुँचाते हुए सयम से रहे तथा दूसरे द्वारा नहीं दी गई वस्तु ग्रहण न करे अर्थात् अदत्तादान न करे।