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[ श्री महावीर वचनामृत
मायामुसं वडूइ लाभदोसा, तत्था वि दुक्खा न विमुच्चई से ॥६॥ [ उत्त० अ० ३२, गा० ३० ]
रूप के संग्रह मे असन्तुष्ट बना हुआ जीव तृष्णा के वशीभूत होकर अदत्त का हरण करता है और इस तरह प्राप्त वस्तु के रक्षणार्थ लोभदोप मे फंसकर कपट-क्रिया द्वारा असत्य वोलता है । इन कारणो से वह दुःख से मुक्त नही होता ।