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________________ मस्तेय] [१४७ साहुगरहणिज्जं पियजणमित्तजणभेदविप्पीतिकारकं रागदोसबहुलं ॥२॥ [प्रश्न० द्वार ३, सूत्र 6] | तीसरा अदत्तादान दूसरों के हृदय को दाह पहुंचानेवाला, मरणभय, पाप, कष्ट तथा परद्रव्य की लिप्सा का कारण और लोभ का मूल है। यह अपयशकारक है, अनार्य कर्म है, साधु-पुरुषो द्वारा निन्दित है, प्रियजन और मित्रजनो मे भेद करानेवाला है, और अनेकविध रागद्वेष को जन्म देनेवाला है। विवेचन-प्रश्नव्याकरण सूत्र के तृतीय द्वार मे स्तेय के तीस नाम गिनाये हैं, जिनमे से कुछ इस प्रकार समझने चाहिये :(१) चोरी, (२) अदत्त, (३) परलाभ, (४) असयम, (५) परचनगृद्धि, (६) लौल्य, (७) तस्करत्व, (८) अपहार, (९) पापकर्मकरण, (१०) कूटतूल-कूटमान, (११) परद्रव्याकाक्षा, (१२) तृष्णा आदि । चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । दंतसोहणमित्तं चि, उग्गहंसि अजाइया ॥३॥ तं अपणा न गिण्हंति, नो वि गिण्हावए परं । अन्नं वा गिण्हमाणं वि, नाणुजाणंति संजया ॥ ४ ॥ [दश० म० ६, गा० १४-१५ ] __ वस्तु सजीव हो या निर्जीव, कम हो या ज्यादा, वह यहां तक कि दाँत कुतरने की सलाई के समान तुच्छ वस्तु भी उसके स्वामी को पूछे बिना सयमी पुरुष स्वय लेते नही, दूसरे से लिवाते नही तथा जो कोई लेता हो, उसे अनुमति देते नहीं।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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