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धारा : ९३ .
अस्तेय
पंचविहो पण्णत्तो, जिणेहिं इह अण्हओ अणादीओ । हिंसामोसमदत्तं, अगंभपरिग्गहं चैव ॥ १ ॥
[प्रश्न० द्वार १, गा० २ ]
जिन भगवन्तों ने आस्रव को अनादि तथा पाँच प्रकार का कहा है : (१) हिंसा, (२) मृपावाद, (३) अदत्त, (४ अब्रह्म और (५) परिग्रह |
विवेचन - जिसके द्वारा आत्मप्रदेशों की ओर कार्मण-वर्गणा का आकर्षण हो उसे आस्रव कहते हैं । वह प्रवाह से अनादि है । हिंसादि पाँच प्रकार के पाप के कारण उसका उद्भव होता है । इनमे से हिंसा को रोकने के लिये प्राणातिपात विरमणव्रत अर्थात् अहिंसाव्रत, मृपावाद को रोकने के लिये मृपावादविरमणव्रत अर्थात् सत्यव्रत, तथा अदत्तादान की निवृत्ति के लिये अदत्तादानविरमणव्रत अर्थात् अस्तेयन्त व्रत हैं । इसी प्रकार अब्रह्म को रोकने के लिये मैथुनविरमणव्रत और परिग्रह को रोकने के लिये परिग्रह - विरमणव्रत हैं । तइयं च अदत्तादाणं हरढहमरणभयकलुमतासणपरसंतिमऽभेज्ज लाभमूलं अकित्तिकरणं अणज्जं
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