________________
___१४.]
[श्री महावीर-वचनामृत इसी प्रकार प्रज्ञावान् साधक क्रोध, लोभ, भय, हास्य अथवा विनोद मे पापकारिणी, पाप का अनुमोदन करनेवाली, निश्चयकारिणी और दूसरे के मन को दुःख पहुँचानेवाली भाषा बोलना छोड़ दे। मुहुत्तदुक्खा उ हवंति कंटया,
___अओमया ते वि तओ सुउद्धरा । वाया दुरुत्वाणि दुरुद्धराणि,
वेराणुवन्धीणि महन्भयाणि ॥१॥
[दश अ०६, उ०३, गा०७] यदि हमे लोहे का काँटा चुभ जाय तो घडी दो घड़ी ही दुःख होता है और वह भी सरलता से निकाला जा सकता है, परन्तु अशभ वाणीरूपी कांग हृदय मे एक वार चम जाने पर सरलता से नही निकाला जा सकता, साय ही वह चिरकाल के लिए वैरानुबन्ध करनेवाला तथा महान् भय उत्पन्न करनेवाला होता है।
दिटुं मियं असंदिद्धं, पडिपुण्णं विय नियं । अयंपिरमणुन्निग्गं, भासं निसिर अत्तवं ॥१६॥
[दशः म० ८, गाः ४६] आत्मार्थी सावक को चाहिये कि वह दृप्ट, परिमित, असन्दिच, परिपूर्ण, स्पष्ट, अनुमत, वाचालता-रहित बोर क्सिो को भी उद्विग्न न करनेवाली ऐसी वाणी का उपयोग करे। भासाइ दोसे य गुणे य जाणिया,
तीसे य दुई परिवज्जए सया।