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सत्य]
[१४१. छसु संजए सामणिए सया जए,
वएज बुद्धे हियमाणुलोमियं ॥१७॥
दश० अ० ७, गा० ५६ ] भाषा के दोष और गुणो को जानकर उसके दोषों को सदा के लिये छोड देना चाहिये। छह काय के जीवो का यथार्थ संयम पालने वाले और सदा सावधानी से वर्ताव करनेवाले ज्ञानी साधक हमेशा परहितकारी तथा मधुर भाषा का ही प्रयोग करे। सुवकसुद्धिं समुपेहिया मुणी,
गिरं च दुटुं परिवज्जए सया । मियं अदुटुं अणुवीइ भासए,
सयाण मज्झे लहई पसंसणं ॥१८॥
1 [वश० अ० ७, गा० ५५ ] मुनि हमेशा वचनशुद्धि का विचार करे और दुष्ट भाषा का सदा के लिये परित्याग करे। यदि अदुष्ट भाषा बोलने का अवसर भी आ जाय तो वह परिमित एव विचारपूर्वक बोले। ऐसा बोलनेवाला सन्त पुरुषो की प्रशसा का पात्र बनता है। अप्पत्तिअं जेण सिया, आसु कुप्पिज्ज वा परो । सव्वसो तं न भासिज्जा, भासं अहिअगामिणिं ॥१६॥
[दश० अ० ८, गा० ४८] जिससे अविश्वास पैदा हो अथवा दूसरे को जल्दी से क्रोध आ जाय ऐसी अहितकर भाषा का विवेकी पुरुष कदापि प्रयोग न करे।
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