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________________ सत्य] [१३६ इसी तरह सत्यभाषा भी अगर अनेकविध प्राणियो की हिंसा का कारण बनती हो अथवा कठोर हो तो कभी नही बोलनी चाहिये, क्योकि उससे पाप का आगमन होता है। तहेव काणं काणे ति, पंडगं पंडगे त्ति वा। चाहियं वा वि रोगि त्ति, तेणं चोरेत्तिनो वए ॥१२॥ [दश० अ०७, गा० १२] ठीक इसी प्रकार काने को काना, नपुसक को नपुसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर भी नही कहना चाहिये, क्योकि यह सब सत्य होने पर भी सुनने मे अत्यन्त कठोर लगता है। एएणऽन्नेण अटेणं, परो जेणुवहम्मइ । आयारभावदोसन्नू , न तं भासिज पन्नवं ॥१३॥ [दश० अ० ७, गा० १३ ] अतः प्रज्ञावान् साधक आचार और भाव के गुण-दोषो को परख कर उपर्युक्त तथा दूसरे के हृदय को आघात पहुँचानेवाली भाषा का प्रयोग न करे। तहेव सावजऽणुमोयणी गिरा, __ ओहारिणी जा य परोवघायणी । से कोह लोह भय हास माणवो, न हासमाणो वि गिरं वएज्जा ॥१४॥ [दश० म०७, गा: ५४]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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