________________
६३
[श्री महावीर-चक्नामुक भगवान् महावीर ने सभी धर्मस्थानों में पहला स्थान अहिता को दिया है। सर्व प्राणियों के साथ संयमपूर्वक वर्ताव करना, इसमे उन्होंने उत्तम प्रकार को अहिता देखी है।
जावन्ति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा। ते जाणमजाणं वा, न हणे नो वि घायए ॥३४॥
[दश० ल, गा० १०] इस लोक में जितने भी त्रस और स्थावर जीव है, उनकी जाने-अनजाने हिंसा नहीं करना, और दूसरो के द्वारा भी हिना नहीं करवाना।
सम्बे जीवा वि इच्छंति, जीविउन मरिजिउं। तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा बज्जयंति णं ॥३॥
[ दग- म०६, गा० १० ] सभी जीव जीना चाहते है, कोई मरना नहीं चाहता । अतः निर्ग्रन्य मुनि सदा भयङ्कर ऐनी प्राणिाि का परित्याग करते हैं।
विवेचत-निर्ग्रन्य मुनि अर्थात् जन श्रमण। भयङ्कर अर्थात् परिणाम मे भपड्र। प्राणिवर अर्यात् जीवहिता हिना, प्रातना ज्यका मारणा!
तेर्मि अच्छणजोएण, निच्चं होयवयं मिया । मणमा काययोण, एवं हवइ मंजए ॥३६॥
[दग. अः ८,गा०३]