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________________ १३०] [श्री महावीर-वचनामृत अभओ पत्थिवा तुम्भ, अभयदाया भवाहि य ।। अणिच्चे जीवलोगम्मि, किं हिंसाए पसज्जसि ॥२६॥ [उ० अ० १८, गा० ११] हे पार्थिव ! तुझे अभय है। तू भी अभयदाता बन । इस क्षणभगुर संसार मे जीवों की हिंसा के लिए तू क्यों आसक्त हो रहा है? जगनिस्सिएहिं भूएहि, तसनामेहिं थावरेहिं च । नो तेसिमारभे दंडं, मणसा वयसा कायसा चेव ॥३०॥ उत्त० म०८, गा०१०] ससार मे त्रस और स्यावर जितने भी जीव हैं, उनके प्रति मन, वचन और काया से दण्ड-प्रयोग नहीं करना। विवेचन--कोई भी प्राणी हमे पीडित करे, हमे सताये अथवा हमारे मार्ग मे विघ्नभत हो, तो भी उसे दण्डित करने का-उसकी हिंसा करने का विचार मन, वचन तथा काया से कदापि नही करना चाहिये। यह हमारा व्यवहार जब पीडा पहुंचानेवाले आदि के प्रति भो उचित है, तब जिसने हमारा कभी कुछ नहीं बिगाड़ा अथवा हमे किसी भी त्य मे कोई क्षति नही पहँचाई-उसे भला क्योंकर दण्ड दे सकते हैं ? तात्पर्य यह है कि मुमुनु को मन, वचन और काया से अहिंसा का पालन करना चाहिये। समणामु एगे क्यमाणा, पाणयहं मिया अयाणंता ।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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