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अहिसा]
[१२६ एएण कारण य आयदण्डे,
एएसु या विष्परियासुविन्ति ॥२६॥
[सू० श्रु० १, अ० ७, गा० १-२] (१) पृथ्वी, (२) जल, (३) तेज, (४) वायु, (५) तृण, वृक्ष, बीज आदि वनस्पति तथा (६) अण्डज, जरायुज, स्वेदज, रसज-इन सभी त्रस प्राणियो को ज्ञानियो ने जीवसमूह कहा है। इन सब में सुख की इच्छा है, यह जानो और समझो। ___ जो इन जीवकायो का नाश करके पाप का सचय करता है, वह बारबार इन्ही प्राणियो मे जन्म धारण करता है। अज्झत्थं सचओ सव्व, दिस्स पाणे पियायए । न हणे पाणिणो पाणे, भयवेराओ उवरए ॥ २७ ॥
[उत्त० भ० ६, गा०७] सभी सुख-दुखो का मूल अपने हृदय मे है, यो मानकर तथा प्राणिमात्र को अपने अपने प्राण प्यारे है, ऐसा समझकर भय और वैर से निवृत्त होते हुए किसी भी प्राणी की हिंसा न करना।
समया सव्वभूएसु, सत्तुमित्तेसु वा जगे। पाणाइवायविरई, जावज्जीवाए दुक्करं ।। २८ ।।
[उत्त० अ० १६, गा० २५ ] शत्रु अथवा मित्र सभी प्राणियो पर समभाव रखना ही अहिंसा कहलाती है। आजीवन किसी भी प्राणी की मन-वचन-काया से हिंसा न करना, यह वस्तुतः दुष्कर व्रत है।