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[श्री महावीर-वचनामृत शब्दादि विषयो के प्रति उदासीन बने हुए मनुष्य को इस ससार मे विद्यमान जितने भी त्रस और स्थावर जीव हैं, उनको आत्मतुल्य मान, उनकी रक्षा करने मे अपनी शक्ति का उपयोग करना चाहिये और इसी प्रकार संयम का भी पालन करना चाहिये। जे य बुद्धा अतिकता,
जे य बुद्धा अणागया । __संति तेसिं पइट्ठाणं,
भूयाणं जगई जहा ॥२४॥
[ सू० ध्रु० १, अ० ११, गा० ३६ ] जीवो का आधार-स्थान पृथ्वी है। वैसे ही भूत और भावी तीर्थडुरों का आधार-स्थान शान्ति अर्थात अहिंसा है। तात्पर्य यह है कि तीर्थडुरों को इतना ऊंचा पद अहिंसा के उत्कृष्ट पालन से ही प्राप्त होता है। पुढवी य आऊ अगणी य वाऊ,
तण-रुक्ख-वीया य तसा य पाणा । जे अण्डया जे य जराउ पाणा,
___संसेयया जे रसयाभिहाणा ॥ २५ ॥ एयाइं कायाइं पवेइयाई,
एए जाणे पडिलेह सायं ।