SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भहिसा] [१२७ ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक, इन तीनो लोको मे जितने भी त्रस और स्थावर जीव है, उनके प्राणो का अतिपात (विनाश ) करने से दूर रहना चाहिये। वैर की शान्ति को ही निर्वाण कहा गया है। विवेचन-ऊर्ध्वलोक अर्थात् ऊपर का भाग-स्वर्ग, अघोलोक अर्थात् नीचे का भाग-पाताल और तिर्यग्लोक अर्थात् इन दोनो के बीच का भाग-मनुष्यलोक। जब किसी भी प्राणी के प्रति हृदय के एक अणु मे भी वैर-वृत्ति नही रहेगी तभी निर्वाण की प्राप्ति हो गई, ऐसा समझना चाहिये। तात्पर्य यह है कि अहिंसा की पूर्णता ही निर्वाण है। पभूदोसे निराकिच्चा, न विरुज्झेज्ज केण वि। मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो ॥ २२ ॥ [सू० श्रु० १, अ० ११, गा० १२] इन्द्रियो को जीतनेवाला समर्थ पुरुष मिथ्यात्व आदि दोष दूर करके किसी भी प्राणी के साथ यावज्जीव मन, वचन और काया से बैर-विरोध न करे। विरए गामधम्महिं, जे केइ जगई जगा । तेसिं अवुत्तमायाए, थाम कुव्वं परिचए ॥ २३ ॥ [ सू० ध्रु० १, भ० ११, गा० ३३]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy