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________________ १२६ ] [ श्री महावीर - चचनामृत वृद्धिमान् मनुष्य उक्त षड्जीवनिकाय का सर्व प्रकार से सम्यग्ज्ञान प्राप्त करे और 'सभी जीव दुःख से घबराते हैं' ऐसा मानकर उन्हे पीडा न पहुँचाए । जे केड़ तसा पाणा, परियाए अत्थि से अनू, चिट्ठन्ति अदु थावरा । जेण ते तस थावरा ॥ १६ ॥ [ सू० ० १, अ० १, उ० ४, ८ ] जगत में जितने भी त्रस और स्थावर जीव हैं, अपनी-अपनी पर्याय के कारण है । अर्थात् सभी जीव अपने-अपने कर्मानुसार त्रस अथवा स्थावर होते हैं | उरालं जगओ सच्चे जोगं, विवज्जासं पलिन्ति य । अकंतदुक्खा य, अओ सव्वे अहिंसिया ॥२०॥ [ सू० श्रु० १, अ० उ० ४. गा० ६] एक जीव जो एक जन्म मे त्रस होता है, वही दूसरे जन्म मे स्थावर होता है । त्रस हो अथवा स्यावर, सभी जीवों को दुःख अप्रिय होता है, ऐसा मानकर मुमुक्षु को सभी जीवों के प्रति अहिंसक बने रहना चाहिए | उडूं अहे य तिरिय, जे केइ तसथावरा । सव्वत्थ विरडं विज्जा, संति निव्वाणमाहियं ॥२१॥ [सू० ० १ ० ११, गा० ११ ]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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