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[ श्री महावीर - चचनामृत
वृद्धिमान् मनुष्य उक्त षड्जीवनिकाय का सर्व प्रकार से सम्यग्ज्ञान प्राप्त करे और 'सभी जीव दुःख से घबराते हैं' ऐसा मानकर उन्हे पीडा न पहुँचाए ।
जे केड़ तसा पाणा, परियाए अत्थि से अनू,
चिट्ठन्ति अदु थावरा । जेण ते तस थावरा ॥ १६ ॥
[ सू० ० १, अ० १, उ० ४, ८ ]
जगत में जितने भी त्रस और स्थावर जीव हैं, अपनी-अपनी पर्याय के कारण है । अर्थात् सभी जीव अपने-अपने कर्मानुसार त्रस अथवा स्थावर होते हैं |
उरालं जगओ
सच्चे
जोगं,
विवज्जासं पलिन्ति य ।
अकंतदुक्खा य,
अओ सव्वे अहिंसिया ॥२०॥
[ सू० श्रु० १, अ० उ० ४. गा० ६] एक जीव जो एक जन्म मे त्रस होता है, वही दूसरे जन्म मे स्थावर होता है । त्रस हो अथवा स्यावर, सभी जीवों को दुःख अप्रिय होता है, ऐसा मानकर मुमुक्षु को सभी जीवों के प्रति अहिंसक बने रहना चाहिए |
उडूं अहे य तिरिय, जे केइ तसथावरा । सव्वत्थ विरडं विज्जा, संति निव्वाणमाहियं ॥२१॥
[सू० ० १ ० ११, गा० ११ ]