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________________ ११०] [श्री महावीर-वचनामृत जव वह समस्त कर्मों को क्षीण कर शुद्ध बना हुआ सिद्धि को पाता है, तव लोक के मस्तक पर रहनेवाला ऐसा गाश्वत सिद्ध वन जाता है। सुहसायगस्स समणस्स, सायाउलगस्स निगामसाइस्स । उच्छोलणापहोयस्स, दुल्लहा सुगई तारिसगस्स ॥१६॥ [दश० भ० ४, गा० २६ ] जो श्रमण बाह्य-सुख का अभिलाषी है, और सुख कैसे प्राप्त हो ? इसी उधेड़-बुन मे निरन्तर व्याकुल रहता है, सूत्रार्थ की वेला टल जाने के पश्चात् भी दीर्घकाल तक सोया रहता है, जो अपना गारीरिक सौन्दर्य बढ़ाने के हेतु सदा हाथ-पैर आदि घोता रहता है, ऐसे श्रमण को मोक्ष की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है। तबोगुणपहाणस्स, उज्जुमइ खंतिसंजमरयस्म । परीसहे जिगन्तस्स, सुलहा सुगई तारिसगस्स ॥१७॥ [दश० भ० ४. गा० २७ ] जो श्रमण तपोगुण मे प्रधान है अर्थात् घोर तप करता है, जो प्रकृति से सरल है, क्षमा और सयम मे सदा अनुरक्त रहता है, तथा परोषहो को जीतता है, उसके लिये मोक्षप्राप्ति सुलभ है। विवेचन-शुद्ध चरित्र का पालन करते समय जो कष्ट, आपत्तियां और कठिनाइयां आती हैं उनको समतापूर्वक सहन कर लेने को ही परीषह-जय कहते हैं। इसके निम्नलिखित वाईस प्रकार हैं:
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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