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________________ साधना-क्रम ] [ १०६ जया सवत्तगं नाणं, दंसणं तया लोगमलोगं च, जिणो चाभिगच्छन् । जाणइ केवली ॥१२॥ [ दश० अ० ४, गा० २२ ] जब साधक सर्वव्यापी ज्ञान और सर्वव्यापी दर्शन को प्राप्त करता है, तब वह लोक और अलोक को जान लेता है तथा जिन एवं केवली बनता है । जया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली | तया जोगे निरंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जइ ॥ १३॥ [ दश० भ० ४, गा० २३] जब साधक लोक और अलोक का ज्ञाता जिन तथा केवली बनता है, तब अन्तिम समय में मन, वचन और काया की समस्त प्रवृत्तियो को रोककर शैलेशी अवस्था को प्राप्त करता है, अर्थात् पर्वत जैसी स्थिर - अकम्प दशा को प्राप्त होता है । जया जोगे निरुंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जइ । तया कम्मं खचित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ || १४ || [ दश० अ० ४, गा० २४ ] जब साधक मन, वचन और काया की समस्त प्रवृत्तियों को रोक कर शैलेशी अवस्था को प्राप्त करता है, तब सम्पूर्ण कर्मों को क्षीण कर गुद्ध रूप धारण कर सिद्धि को पाता है । जया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छड़ नीरओ । तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो हचड़ सासओ ॥ १५ ॥ [ घ० भ० ४, गा० २५ ]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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