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________________ मोक्षमार्ग] ५. [१०१ श्रद्धारूपी नगर, क्षमारूपी दुर्ग और तप-सयमरूपी अगला बनाकर त्रिगुप्तिरूप शस्रो द्वारा कर्मशत्रुओ से अपनी रक्षा करनी चाहिये। पुनः पराकमरूपी धनुष की ईर्यासमिति रूप डोरी बनाकर धैर्यरूपी केतन से सत्य द्वारा उसे बाँधना चाहिये। उस धनुष पर तपरूपी वाण चढाकर कर्मरूपी कवच का भेदन करना चाहिये। इस प्रकार से सग्राम का सदा के लिये अन्त कर मुनि भवभ्रमण से मुक्त हो जाता है। विवेचन-इस वर्णन का तात्पर्य यह है कि मोक्षमार्ग के पथिक को नीचे लिखे गण प्राप्त करने चाहिये। १ : श्रद्धा-आत्मश्रद्धा, देव-गुरु-धर्म के प्रति श्रद्धा, नव तत्त्वों पर श्रद्धा। २:क्षमा- क्रोध पर विजय । यहाँ मान, माया और लोभ पर विजय का निर्देश नही किया गया है पर वह समझ लेना चाहिये। इस प्रकार आर्जव, सरलता और निर्लोभता भी अर्जित करनी चाहिये। ३ : तप-अनेकविध तप। ४ : सयम-पाँच इन्द्रियों पर नियन्त्रण । ५ : त्रिगुप्ति-~-गुप्ति अर्थात अप्रशस्त प्रवृत्ति का निग्रह । इसके तीन प्रकार हैं--(१) मनगुप्ति, (२) वचनगुप्ति और (३) कायगुप्ति । सयम मार्ग मे आगे बढ़ने के लिये ये तीनो गुप्तियाँ बहुत ही महत्त्वपूर्ण साधन है। ६:प्रराकम-विघ्नो की परवाह किये बिना ध्येय की ओर अग्रसर होने का दृढ पुरुषार्थ ।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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