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[ श्री महावीर वचनामृत
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लोक-समूह का त्याग करके एकाग्रभाव से विचरण करना तथा काया के ममत्व को छोड़कर आत्मभाव मे रहना व्युत्सर्ग हैं | खवित्ता पुव्वकम्माई, संजमेण तवेण य । सन्चदुःखप्पहीणट्ठा, पक्कमंति महेसिणो ॥ १४ ॥
[ उत्त० अ० २८, गा० ३६ ]
जो महर्षि है, वे सयम और तप से पूर्व कर्मों का क्षय कर समस्त दुःखों से रहित ऐसे मोक्षपद की ओर शीघ्र गमन करते हैं । तव संवरमग्गलं ।
सर्द्ध नगरं किच्चा, खन्ति निउणपागारं तिगुत्तं दुप्पधंसगं ॥१५॥
धणुं परकमं किच्चा, जीवं च ईरियं सया । धि च केयणं किच्चा, सच्चेण पलिमन्थए || १६ || तवनारायजुत्तेण,
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भित्तणं कम्मकंचुयं । मुणी विगयसंगामी, भवाओ परिमुच्चए ||१७||
[ उत्त० अ० ६, गा० २०-२१-२२ ]
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तपोरत्नमहोदधि ग्रन्थ में अनेक प्रकार के तप का वर्णन किया गया है और सम्पादक ने 'तप-विचार', 'तपनां तेज, ( धर्मबोध-प्रन्थमाला : पु० १२ ) और 'तपनी महत्ता' (जैन शिक्षावली प्रथम श्रेणी : पु० ८ ) तथा 'आर्यावल - रहस्य' ( जैन शिक्षावली द्वितीय श्रेणी : पु० ६ ) नामक गुजराती पुस्तकों मे तप के सम्बन्ध में विविध दृष्टियों से विचार किया है।