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[श्री महावीर वचनामृत तवो य दुविहो वुत्तो, वाहिरव्भन्तरो तहा। वाहिरो छचिहो वुत्तो, एवमभन्तरो तवो ॥११॥
[उत्त० अ० २८ गा० ३४] तप दो प्रकार का बतलाया गया है। वाह्य और आभ्यन्तर । वाह्य तप छह प्रकार का वर्णित है और आभ्यन्तर तप भी इतने ही प्रकार का।
विवेचन-जो शरीर के सातों धातुओ तथा मन को तपाये, वह तप कहलाता है। कर्म की निर्जरा करने के लिये यह उत्तम साधन है। तप दो प्रकार का है :-बाह्य और आभ्यन्तर । इन मे वाह्यतप गरीर की गुद्धि में विशेष उपकारक है और आभ्यन्तर तप मानसिक शुद्धि मे। इन दोनो तपों के अलग-अलग छह प्रकार हैं। अणसणमूणोयरिया, भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ । कायकिलेसो संलीणया, 4 वज्झो तबो होई ॥ १२ ॥
. [उत्त० भ०३०, गा०८] वाह्यतप के छह प्रकार है-(१) अनगन, (२) ऊनोदरिका, (३) मिक्षाचरो, (४) रसपरित्याग, (५) कायक्लेश तथा (6) सलीनता ।
विवेचन-भोजन का अमुक समय के लिये अथवा पूर्ण समय के लिये परित्याग करना अनशन कहलाता है। एकागन, आयविल, उपवास-ये सब इसी तप के प्रकार हैं। क्षुधा से कुछ कम भोजन करने की क्रिया को ऊनोदरिका कहते हैं। शुद्ध भिक्षा पर निर्वाह