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मोक्षमार्ग]
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स्वामी का मार्ग स्वीकृत किया, तब नये सिरे से चारित्र ग्रहण किया था , वह इस प्रकार का था। सामायिक-चारित्र के पर्याय का छेदन कर उपस्थापित किया जाता है इसलिये इसे छेदोपस्थापनीय कहते है। इसमे प्रवेश करने के बाद पूर्वावस्था के मुनियो के साथ व्यवहार में आ सकते हैं।
विशिष्ट प्रकार की तपश्चर्या से आत्मा की शुद्धि करना, परिहार विशुद्धि नामक तीसरा चारित्र है।
क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायो को सम्पराय कहते है। वह सूक्ष्म हो जाय अर्थात् उपशम या क्षय को प्राप्त हो जाय, तव सूक्ष्म-सम्पराय चारित्र की प्राप्ति मानी जाती है। इस चारित्र मे सूक्ष्म लोभ का अरा गेष रहता है।
जब सूक्ष्म लोभ भी चला जाय और इस प्रकार सम्पूर्ण कषाय रहित अवस्था प्राप्त हो, तब यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति मानी जाती है। इस चारित्र को वीतराग चारित्र भी कहते है, क्योकि उस समय आत्मा राग और द्वष दोनो से ऊपर उठ सम्पूर्ण माध्यस्थभाव को प्राप्त होती है।
छद्मस्थ आत्मा उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त करती हुई इस अवस्था तक पहुँचती है और केवलज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् भी इस चारित्र मे स्थिर रहती है।
ये सब चारित्र उत्तरोत्तर शुद्ध हैं और कर्म का क्षय करने मे परम उपकारक है।