SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [६१ .मोक्षमार्ग] की सहायता के बिना आत्मा को सीधे हो प्राप्त होते है, अतः इनकी गणना प्रत्यक्ष-ज्ञान में की जाती है। इसकी अपेक्षा आभिनिबोधिक ज्ञान तथा श्रुतज्ञान परोक्ष है, जबकि व्यवहार की गणना इससे भिन्न है। व्यवहार मे इन्द्रिय और मन के निमित्त से होनेवाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते है और अनुमान, शब्द आदि से होनेवाले सीधे ज्ञान को परोक्ष कहते है। शास्त्रकारो ने संव्यवहारिकप्रत्यक्ष और संव्यवहारिक-परोक्ष के रूप मे इसकी सूचना दी है। एयं पंचविहं नाणं, दवाण य गुणाण य । पजवाणं य सम्वेसि, नाणं नाणीहि देसियं ।।४।। [उत्त० भ० २८, गा०५] सर्वद्रव्य, सर्वगुण और सर्वपर्यायो का स्वरूप जानने के लिये ज्ञानियो ने पांच प्रकार का ज्ञान बतलाया है। विवेचन-इस कथन का तात्पर्य यह है कि कोई भी ज्ञेय वस्तु इन पांच ज्ञान की मर्यादाओ से बाहर नही है। ___पाँच ज्ञानो का स्वरूप तथा उनकी प्रक्रिया नन्दिसूत्र तथा विशेषावश्यकभाष्य मे विस्तारपूर्वक समझाई गई है। * जीवाज्जीवा बंधो य, पुण्णं पावाऽसवो तहा। संवरो निजरा मोक्खो, संते ए तहिया नव ॥॥ [उत्त० अ० २८, गा० १४] * इस सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिए सम्पादक द्वारा गुजराती माध्यम से लिखी गई 'ज्ञानोपासना' (धर्मबोध-ग्रन्थमाला की भाठवीं पुस्तक) देखनी चाहिये।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy