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[श्री महावीर वचनामृत (१) जीव, (२) अजीव, (३) बंध, (४) पुण्य, (५) पाप, (६) आश्रव, (७) सवर, (८) निर्जरा और () मोक्ष ये नव तत्त्व है।
विवेचन-इस जगत् मे जो कुछ जानने योग्य है, उसे ज्ञेय तत्त्व कहते हैं ; जो कुछ छोड़ने योग्य है, उसे हेय तत्त्व कहते हैं, और जो कुछ आदरने योग्य है, उसे उपादेय तत्त्व कहते हैं।
इन तीनों तत्त्वों के विस्तार के रूप मे ही नव तत्त्वो की योजना की गई है। ज्ञेय तत्त्व के दो प्रकार हैं:-जीव और अजीव । इन दोनों तत्त्वो का परिचय पहले दिया जा चुका है। हेय तत्त्व के तीन प्रकार है :-आस्रव, बन्ध और पाप। जिससे कर्म आत्मप्रदेश की ओर खिंचा जाता हैं, वह आत्रव, जिससे कर्म आत्मप्रदेश के साथ ओतप्रोत हो जायं, वह बन्च, और जिससे आत्मा को अशुभ फल भोगना पड़े वह पाप । उपादेय तत्त्व के चार प्रकार हैं:-सवर, निर्जरा, मोक्ष और पुण्य । आस्रव को रोकनेवाली क्रिया सवर कहलाती है, आत्मप्रदेशों के साथ ओतप्रोत बने हुए कर्मों का अल्ल अयवा अधिक अश मे पृथक् हो जाना उसे निर्जरा कहते हैं, सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाने को मोक्ष कहते हैं तथा शुभफल देनेवाला कर्म पुण्य कहलाता है। इनमे पुण्य कथमित् उपादेय है, क्योंकि उससे सत्साधनों की प्राप्ति होती है, किन्तु मोक्ष मे जाने के लिये उसका भी क्षय होना आवश्यक है।
नवतत्त्व-प्रकरण तथा सटीक कर्मग्रन्थों मे नवतत्त्वों के सम्बत्व मे उपयोगी जानकारी दी गई है।
सम्पादक ने 'जन-धर्मदर्शन' नामक अपने वृहद् अय में इस विषय प्पर वैज्ञानिक तुलना के साथ विस्तृत विवेचन किया है।