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मोक्षमार्ग]
[८६ है, चारित्र से कर्म का आस्रव रुकता है और तप से आत्मा की सम्पूर्ण शुद्धि होती है।
तत्थ पंचविहं नाणं, सुयं आभिणिवोहियं । ओहिनाणं तु तइयं, मणनाणं च केवलं ॥३॥
[उत्त० म० २८, गा० ४] इनमें ज्ञान पाँच प्रकार का है :-(१) आभिनिबोधिक, (२) श्रुत, (३) अवधि, (४) मनःपर्यव और (५) केवल ।।
विवेचन-मोक्ष के चतुर्विध साधनो मे ज्ञान का क्रम पहला है, अतः उसका वर्णन प्रथम किया गया है। जिसके द्वारा वस्तु का ज्ञान हो, वस्तु पहचान मे आवे, अथवा वस्तु समझी जाय, वह ज्ञान कहलाता है। इसके पांच प्रकार है, आभिनिबोधिक आदि।
पाँच इन्द्रियाँ तथा छठे मन के द्वारा जो अर्थाभिमुख निश्चयात्मक बोध होता है वह आभिनिबोधिक ज्ञान कहलाता है। इसी को मतिज्ञान भी कहते हैं । हम स्पर्श कर, चख कर, सूघ कर, देख कर तथा सुन कर जो ज्ञान प्राप्त करते है, वह मतिज्ञान है।
इस ज्ञान की प्राप्ति चार भूमिकाओं में होती है। जिसमें से 'पहली भूमिका का नाम अवग्रह है, दूसरी का ईहा, तीसरी का अपाय और चौथी का घारणा।
एक वस्तु का स्पर्श होने पर कुछ है' ऐसा जो ज्ञान अव्यक्तरूप में होता है वह अवग्रह कहलाता है । 'यह क्या होगा ?' ऐसा जो विचार पैदा होता है वह है ईहा । यह वस्तु वही है' ऐसा जो निर्णय होता है वह अपाय कहलाता है । तथा 'मुझे इस वस्तु का स्पर्श हुआ'