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[श्री महावीर वचनामृत भी जिस वजह उसका खाने-पीने मे उपयोग न किया जा सके और कदाचित् खा-पी सके तो उसका पाचन न हो सके वह भोगान्तरायकर्म । जो एक बार ही काम में आये उसे भोग्य पदार्थ कहते हैं,
से भोजन, पानी आदि। जो बार-बार उपयोग में लिया जा सके उसे उपभोग्य कहते हैं, जैसे वस्त्र, आभूषण आदि । जिसके कारण उपभोग की सामग्री जब चाहिये तब और जितने प्रमाण मे चाहिए ज्तने प्रमाण मे स्वाधीन रहते हुए भी उपयोग में न आ सके, वह उपमोगान्तराय कर्म । और जिसके उदय मात्र से स्वय युवा और दलवान् होने पर भी कोई कार्य सिद्ध न कर सके वह वीर्यान्तराय-कर्म कहलाता है।
उदहीसरिसनामाणं, तीसई कोडिकोडीओ। उक्कोसिया ठिई होई, अन्तोमुहुत्तं जहणिया ॥१६॥ आवरणिजाण दुण्हं पि, वेयणिज्जे तहेव य । अन्तराए य कम्ममि, ठिई एसा वियाहिया ॥१७॥
[उत्त० अ० ३३, गाः १६-२०] ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय तथा अन्तराय इन चार कर्मों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागरोपम की होती है।
विवेचन-जब आत्मप्रदेशों के माय कर्म का बन्धन होता है, समी उसकी स्थिति अर्थात् टिक्ने का समय भी निश्चित हो जाता है। बतः वे इतने समय तक बात्मा के साथ बने रहते हैं। उसका