________________
[७१
कर्म के प्रकार]
गोयकम्मं तु दुविहं, उच्चं नीयं च आहियं । उच्च अट्ठविहं होइ, एवं नीयं वि आहियं ॥१४॥ गोत्रकर्म दो प्रकार का होता है-(१) उच्च और (२) नीच । इन दोनो के आठ-आठ और प्रकार कहे गये है।
विवेचन-उच्च गोत्रकर्म के आठ प्रकार इस तरह समझना चाहिये :--(१) उच्च जाति मे उत्पन्न होना, (२) उच्च कुल में उत्पन्न होना, (३) बलवान् बनना, (४) सौन्दर्यशाली होना, (५) तपस्वी बनना, (६) यथेष्ठ अर्थप्राप्ति होना, (७) विद्वान् बनना और (८) सम्पत्तिशाली बनना। जबकि नीचगोत्रकर्म के आठ प्रकार इनसे विपरीत समझना चाहिए।
दाणे लाभे य भोगे य, उवभोगे वीरिए तहा । पंचविहमंतरायं, समासेण वियाहियं ॥१२॥
[उत्त० अ० ३३, गा० १ से १५ ] अन्तराय कर्म को सक्षेप मे पांच प्रकार का कहा गया है(१) दानान्तराय, (२) लाभान्तराय, (३) भोगान्तराय, (४) उपभोगान्तराय और (५) वीर्यान्तराय ।
विवेचन-दान देने की वस्तु विद्यमान रहने पर तथा उसके देने से होनेवाले लाभो का ज्ञान होते हुए भी, जिसके कारण दान नहीं दिया जा सके, वह दानान्तराय-कर्म कहलाता है। इसी तरह प्रयत्न करने पर भी जिस कारण किसी वस्तु का लाभ न हो उसे लाभान्तरायकर्म कहते है । खान-पानादि सभी सामग्रियो के विद्यमान होने पर