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[श्री महावीर वचनामृत नेरझ्यातिरिक्खाउं, मणुस्साउं तहेव य । देवाउअं चउत्थं तु, आउकम्मं चउनिहं ॥१२॥
आयुकर्म के चार प्रकार है- (१) नरकायु, (२) तीर्यचायु, (३) मनुष्यायु और (४) देवायु।
विवेचन-जीव को जिसके कारण नरकयोनि मे रहना पड़े, वह नरकायु, तिर्यच योनि मे रहना पड़े, वह तिर्यचायु, मनुष्य योनि मे रहना पड़े, वह मनुष्यायु और देवयोनि मे रहना पडे, वह देवायु ।
नामकम्मं तु दुविहं सुहमसुहं च आहियं । सुहस्स उ वहू भेया, एमेव असुहस्स वि ॥१३॥ नामकर्म दो प्रकार का कहा गया है-(१) शुभ और (२) अशुम । शुभ नाम-कर्म के अनेक मेद है, और अशुभ नाम-कर्म के भी अनेक भेद है।
विवेचन-जिसके योग से जीव को मनुष्य और देव की गति, सुन्दर अङ्ग-उपाङ्ग, अच्छा स्वरूप, वचन को मधुरता, लोकप्रियता, यशस्विता आदि प्राप्त हों, वह शुभ नामकर्म कहा जाता है। और नरक तथा तिर्यच की गति, वेडोल अङ्ग-पाङ्ग, पुल्पता, वचन की कठोरता, अप्रियता, अपयश आदि प्राप्त हों वह अशुभ नामकर्म कहा जाता है।
शुभ नाम-कर्म के अनन्त भेद है, किन्तु मध्यम अपेक्षा से ३७ भेद माने जाते है और अनुभ नाम-कर्म के भी अनन्त भेद है, किन्तु मध्यम अपेक्षा से ३४ भेद माने जाते है। इनका विस्तार कर्मग्रन्थों से जानना।