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[श्री महावीर-वचनामृत
क्रोध अनन्तानुबन्धी-पर्वत मे पड़ी हुई दरार के समान। जिस तरह
पर्वत मे पड़ी दरार पुनः जुडती नही, वैसे ही इस प्रकार
का क्रोध उत्पन्न होने पर जीवन भर शान्त होता नहीं। अप्रत्याख्यानी-पृथ्वी मे पड़ी हुई दरार के समान । जसे पृथ्वी मे
पडी हुई दरार वर्षा आने पर पट जाती है, ठीक वैसे ही इस प्रकार का क्रोध उत्पन्न हुआ हो तो अधिक से अधिक
एक वर्ष में शान्त हो जाता है। प्रत्याख्यानी रेती मे खोची हुई रेखा के समान । रेती मे खीची
हुई रेखा वायु का झोका आने पर मिट जाती है, इसी तरह ऐसा क्रोध उत्पन्न हुआ हो तो अधिक से अधिक एक
मास में गान्त हो जाता है। सज्वलन-पानी मे खीची गई रेखा के समान । पानी मे खीची गई
रेखा जैसे शीघ्र नष्ट हो जाती है, वैसे ही इस तरह का क्रोध उत्पन्न हुआ हो तो अधिक से अधिक पन्द्रह दिन मे शान्त हो जाता है।
मान अनन्तानुबन्धी-पत्थर के खम्भे के समान, जो किसी प्रकार
__ मुक्तता ही नहीं। अप्रत्याख्यानी-हड्डी के समान, जो अत्यन्त कष्ट से भूतता है। प्रत्याख्यानी-काष्ठ के समान, जो उपाय करने पर भुकता है। सज्वलन-उत की लकड़ी के समान, जो सरलता से मुक जाता है।