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, कर्म के प्रकार]
[६७ चारित्रमोहनीव-कर्म दो प्रकार का कहा गया है :-(१) कषायमोहनीय और (२) नोपायमोहनीय ।
सोलसविहभेएणं, कम्मं तु कसायजं । सत्तविहं नवविहं वा, कम्मं च नोकसायजं ॥११॥
कपायमोहनीय-कर्म के सोलह प्रकार है और नोकपायमोहनीय__कर्म के सात अथवा नी प्रकार हैं।
विवेचन--जीव के शुद्ध स्वरूप को कलुषित करनेवाला तत्त्व कपाय कहलाता है, अथवा जो अनेक प्रकार के सुख और दुःख के फलयोग्य कर्मक्षेत्र का कर्पण करता है-वह कषाय कहलाता है। अथवा जिससे कष, यानी ससार का, आय यानी लाभ हो अर्थात् संसार की वृद्धि हो वह कपाय कहलाता है। कषाय के मुख्य चार प्रकार हैं : (१) क्रोध, (२) मान (अभिमान ), (३) माया ( कपट ), तथा (४) लोभ (तृष्णा)। इन प्रत्येक के तरतमता के अनुसार (१) अनन्तानुवन्वी, (२) प्रत्याख्यानी, (३) अप्रत्याख्यानी तथा (४) सज्वलन ऐसे चार-चार भेद है। इस तरह कषाय के कुल सोलह प्रकार होते है।
अनन्तानुवन्धी कषाय अत्यन्त तीव्र होते है। प्रत्याख्यानी कषाय केवल तीव्र होते है जबकि अप्रत्याख्यानी कषाय मन्द होते है और सज्वलन कषाय अति मन्द ।
कषाय की तरतमता को समझने के लिये जैन शास्त्रो मे निम्न दृष्टान्त दिये गये हैं