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________________ ६६] [श्री महावीर-चनामृत सम्यक्त्वमोहनीय कर्म कहते हैं। इस कर्म का उदय होने से जीव को । सम्यक्त्व की प्राप्ति तो होती है ; परन्तु जब तक वह अस्तित्व मे रहता है, तब तक मोक्ष की एक शुद्ध अवस्यास्वरूप क्षायिक सम्यक्त्व को रोकता है। जिससे आत्मा मिथ्यात्व मे आसक्त हो जाय वह मिथ्यात्वमोहनीय-कर्म कहलाता है। मिथ्यात्व के उदय से जीव वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कथित तत्त्व को अतत्त्व और अज्ञकथित तत्त्व को तत्त्व मानता है, सत्य को असत्य और असत्य को सत्य मानता है। और इसीलिये वह तत्त्व का-सत्य का आग्रह न रखते हुए अरुचि रखता है। जो अतत्व का-असत्य का आग्रह रखता है, वह सत्य का साक्षात्कार नही कर सकता। ऐसी स्थिति मे वह अन्य प्रकार की आध्यात्मिक प्रगति मला कैसे कर सकता है ! जिससे न मिथ्यात्व और न सम्यक्त्व अर्थात् तत्त्व के प्रति रुचि मी नही और अरुचि भी नही-(कुछ मिथ्यात्व चला जाय और कुछ शेष रहे ) उसे मिश्रमोहनीय-कर्म कहते हैं। उपर्युक्त प्रकार के कर्मोदय के समय जीव तत्त्व और अतत्त्व सत्य और असत्य दोनो के प्रति समान वृत्ति धारण करता है। फलतः सत्य के लिए आग्रही नही बन सकता-यह स्थिति भी आध्यात्मिक प्रगति के लिये उतनी ही बाधक है। चरित्तमोहणं कम्मं, दुविहं तं वियाहियं । कसायमोहणिज्जं तु, नोकसायं तहेव य ॥१०॥
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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