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________________ कर्म के प्रकार ] [ ६ बोध को रोके वह अवधिदर्शनावरणीय और ( 8 ) जो केवलदर्शन द्वारा होनेवाले वस्तुमात्र के सामान्य बोध को रोके वह केवलदर्शनावरणीय । वेयणियं पि दुविहं, सायमसायं च आहियं । सायरस उ बहू भैया, एमेव असायन्स वि ॥७॥ वेदनीय कर्म दो प्रकार के कहे गये हैं : -- (१) सातावेदनीय और असातावेदनीय । इन दोनो के अवान्तर भेद अनेक है । विवेचन - जिसके द्वारा शारीरिक तथा मानसिक सुखशान्ति का अनुभव हो वह 'सातावेदनीय' और दुःख तथा अशान्ति का अनूभव हो वह 'असातावेदनीय' कर्म कहलाता है । दुविहं मोहणिज्जं पि दुविहं, दंसणे चरणे तहा । दंसणे तिविहं वृत्तं चरणे दुविहं भवे ॥८॥ मोहनीय कर्म भी दो प्रकार के है : -- (१) दर्शनमोहनीय और (२) चारित्रमोहनीय । इनमे दर्शनमोहनीय कर्म तीन प्रकार का और चारित्रमोहनीय कर्म दो प्रकार का कहा गया है । सम्मत्तं चैव मिच्छत्तं, सम्मामिच्छत्तमेव य । एयाओ तिष्णि पयड़ीओ, मोहणिज्जस्स दंसणे ॥६॥ (१) सम्यक्त्वमोहनीय, (२) मिथ्यात्वमोहनीय और (३) मित्रमोहनीय । इस प्रकार दर्शनमोहनीय कर्म की तीन उत्तरप्रकृतियाँ हैं । विवेचन - आत्मा अपने अध्यवसाय के बल पर मिथ्यात्व के पुद्गलो को शुद्ध करे और उसमे से मिथ्यात्वकारी मल निकल जाय, उसे ५.
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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