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धारा: ५:
• कर्म के प्रकार अट्ठ कम्माई वोच्छामि, आणुपुन्निं जहकमं । जेहिं बद्धो अयं जीवो, संसारे परिवट्टई ।। १ ।। नाणस्सावरणिज्जं, दसणावरणं तहा। वेयणिज्जं तहा मोहं, आउकम्मं तहेब य ॥ २॥ नामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य ।। एवमेयाई कम्माई, अट्ठव उ समासओ ॥ ३ ॥ मैं आठ कर्मों का स्वरूप यथाक्रम कहता हूं जिनसे बद्ध यह जीव ससार मे विविध पर्यायो का अनुभव करता हुआ निरतर परिभ्रमण करता रहता है।
(१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयु, (६) नाम, (७) गोत्र और (5) अतराय ।
विवेचन-आत्मा मिथ्यात्व, अविरति आदि दोषों के कारण कार्मण वर्गणाओं को अपनी ओर आकृष्ट करती है और जब ये कार्मणवर्गणाएं आत्मप्रदेश के साथ मिल जाती है, तव उसे 'कर्म' सज्ञा प्राप्त होती है। कर्म का मुख्य कार्य आत्मा की शक्तियो पर आवरण चढाना है। अतः इसे आत्मा का विरोधी तत्त्व माना जाता है।