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________________ कर्म के प्रकार ] [६१. कर्म के कुल आठ प्रकार है ज्ञानावरणीयादि । जिस कर्म के कारण आत्मा के ज्ञानगुण पर आवरण छा जाता है उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते है। यह कम आँख की पट्टीके के समान होता है। आँख मे देखने की शक्ति रहने पर भी पट्टी रहने के कारण वह बराबर देख नही सकती, वैसे ही आत्मा अनन्त ज्ञानवाली होने पर भी ज्ञानावरणीयकर्म के कारण बराबर जान नही पाती। जिस कर्म के द्वारा आत्मा की दर्शनशक्ति पर आवरण छा जाय उसे दर्शनावरणीय-कर्म कहते है। इसका कार्य राजा के प्रतिहारी जैसा होता है। जैसे प्रतिहारी राजा के दर्शन करने पर रोक लगाता है, वैसे ही दर्शनावरणीय कर्म आत्मा को वस्तुस्वरूप के दर्शन से रोकती है। जिस कर्म से आत्मा को साता (सुख) और असाता ( दुःख ) का अनुभव हो, उसे वेदनीय कर्म कहते है। यह कर्म शहद से लिपटी हुई तलवार की धार जैसा है। शहद लिपटी तलवार की घार चाटने पर जैसी साता उत्पन्न होती है-सुख मिलता है, वैसे ही जीभ कट जाने पर असाता उत्पन्न होती है, अत्यन्त पीड़ा होती है। यही बात आत्मा के विषय मे है। आत्मा मूलस्वरूप मे आदन्दघन होते हुए भी वेदनीय-कर्म के कारण वह कृत्रिम सुख-दुःखो का लगातार अनुभव करती रहती है। जिस कर्म के द्वारा आत्मा के सम्यक् श्रद्धान और सम्यक् चारित्ररूपी गुणो का अवरोध होता है, उसको मोहनीय-कर्म कहते हैं। यह कर्म मदिरापान के समान है। मदिरापान करने से मनुष्य में
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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