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कर्मवाद] जाती है, और डूबने लगती है, ठीक वैसे ही हिंसा, असत्य, चोरी व्यभिचार तथा मूर्छा-मोह इत्यादि आश्रवरूपी कर्म करने से आत्म पर कर्मरूपी मिट्टी की तहे जम जाती है और यह भारी वन अधोगति को प्राप्त हो जाती है। यदि तुम्बी के ऊपर की मिट्टी की तहे हट दी जायं तो वह हलकी होने के कारण पानी पर आजाती है और तैरने लगती है, वैसे ही यह आत्मा भी जब कर्म-वन्वनो से सर्वथ मुक्त हो जाती है, तब ऊर्ध्वगति प्राप्त करके लोकाग्र-भाग पर पहुंच जाती है और वहाँ स्थिर हो जाती है।