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[श्री महावीर वचनामृत पड़ता है, वैसे ही कुछ कर्म से रहित होने पर सर्व दुःखों का अन्त हो जाता है। ___ अट्टदुहट्टियचित्ता जह जीवा दुःख सागरमुर्वेति जह वेरग्गमुवगया कम्मसमुग्गं विहाडेति ॥१५॥
[औप० सू० ३४] जैसे आर्त्त-रौद्र ध्यान से विकल्प-चित्तवाले जीव दुःखसागर को प्राप्त होते हैं, वैसे ही वैराग्यप्राप्त जीव कर्म-समूह को नष्ट कर डालते हैं। ____जह रागेण कडाण कम्माणं पावगो फलविवागो जह य परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धालयमुर्वेति ॥१६॥
[औप० सू० ३५] जैसे राग (द्वष) द्वारा उपार्जित कर्मों का फल अनुचित होता है, वैसे ही सब कर्मों के क्षय से जीव सिद्ध होकर सिद्धलोक मे पहुँचता है।
जह मिउलेवालित्तं गरुयं तुवं अहो वयइ एवं । आसवकयकम्मगुरु, जीवा वच्चंति अहरगई ॥१७॥ तं चेव तन्चिमुक्कं, जलोपरि ठाइ जायलहुभावं । जह तह कम्मविमुक्का, लोयग्गपइडिया होंति ॥१८॥
[शातासूत्र अ०६] जिस प्रकार तुम्बी पर मिट्टी को तहे जमाने से वह भारी हो