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________________ कर्मवाद] [५१ १२ : श्वासोच्छवास के लिये ग्रहण करने योग्य महावर्गणा।। १३ : श्वासोच्छवास और मन के लिये ग्रहण न करने योग्य महावर्गणा। १४ : मन के लिये ग्रहण करने योग्य महावर्गणा। १५ : मन और कर्म के लिये ग्रहण न करने योग्य महावर्गणा। १६ : कर्म के लिये ग्रहण करने योग्य महावर्गणा। इस सोलहवी वर्गणा को ही कार्मण-वर्गणा कहा जाता है। ये कार्मण-वर्गणाएं पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्च और अधः आदि छहो दिशाओ मे सर्वत्र व्याप्त रहती है। इन्ही मे से आत्मा उपयुक्त वर्गणाओं को ग्रहण कर लेती है और वह आत्मा के सर्वप्रदेशो के साथ सर्वप्रकार से अर्थात् प्रकृति से, स्थिति से, रस से और प्रदेश से इस तरह चारो प्रकार से बंध जाती है। यहाँ इतना स्मरण रखना चाहिये कि आत्म-प्रदेशो के केन्द्र मे जो आठ रुचकप्रदेश होते है, वे सदा निर्मल होते है। उन्हे किसी प्रकार के कर्म का बन्धन नही होता। जमियं जगई पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्पन्ति पाणिणो । सयमेव कडेहिं गाहई, __णो तस्स मुच्चेज्जऽपुट्ठयं ॥३॥ [सू० अ० १, भ० २, उ० १, गा० ४] इस भूतलपर जितने भी प्राणी है, वे सब अपने-अपने सचित कर्मों के कारण ही संसार मे परिभ्रमण करते रहते है और स्वकृत
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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