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________________ [ श्री महावीर-वचनामृत कमों के अनुसार ही भिन्न-भिन्न योनियों में पैदा होते हैं। पाजित कर्मों का फल भोगे विना प्राणी मात्र का छटकारा नहीं होता। विवेचन-जीव के उन्पत्ति-स्थान को योनि कहते है। योनियों की सान्या ८४ लाख इन प्रकार मानी जाती है : पृथ्वीकाय की योनि ७ लाख अपकाय की , ७ लाख तेजस्काय की , ७ लाख वायुकाय को , ७ लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय की १० लात साधारण , १४ लाख दो इन्द्रियवाले जीवों को २ लाख तीन इन्द्रियवाले जीवों को २ लाख चार इन्द्रियवाले जीवो की २ लाख देवताओं की ४ लाख नारकीयो की ४ लाख तिर्यच पन्चेन्द्रियों की ४ लाख मनुष्यों को १४ लाख ८४ लाख __ ये योनियाँ प्रवान रूप से नौ प्रकार की है:-(१) सचित्त, (२) अचित्त, (३) सचित्ताचित्त, (४) गीत, (५) उष्ण, () शीतोष्ण, (७) सवृत्त () विवृत्त, और (६) सवृत्त-विवृत्त। इनमे जो जीवप्रदेश वाली योनि है वह सचित्त, जीवप्रदेश से रहित है वह अचित्त,
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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