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________________ ४२ ] [ श्री महावीर वचनामृत नारकी - जीव सात प्रकार के हैं, क्योंकि नरक से सम्बद्ध पृथ्वियां सात प्रकार की हैं । वे इस प्रकार हैं :- (१) रत्नप्रभा, (२) शर्कराप्रभा, (३) वालुकाप्रभा, (४) पङ्कप्रभा, (५) घूमप्रभा, (६) तमप्रभा और (७) तमतमाप्रभा । विवेचन—पहली नरक की अपेक्षा दूसरी नरक मे और दूसरी नरक की अपेक्षा तीसरी नरक मे इस प्रकार उत्तरोत्तर हर नरक मे अधिक अन्धकार होता है । जवकि सातवी नरक तमतमा नाम की है, अतः वहाँ घोर अन्धकार होता है । पंचिंदिय तिरिक्खा उ, दुविहा ते वियाहिया । गव्भवक्कंतिया तहा ॥४०॥ संमुच्छिम - तिरिक्खा उ, [ उत्त० अ० ३६, गा० १७० ] पचेन्द्रिय तिर्यंच जीव दो प्रकार के कहे गये हैं :- संमूच्छिम और गर्भोत्पन्न-गर्भज । विवेचन—समूच्छिम जीव मनःपर्याप्ति के अभाव मे मूढदशा मे रहते है । वे कुछ पदार्थों मे उत्पन्न होते हैं जबकि गर्भोत्पन्न गर्भ से उत्पन्न होते हैं । दुविहावि ते भवेतिविहा, जलयरा थलयरा तहा । नहयरा य बोधव्वा, तेसिं भेए सुणेह मे ॥ ४१ ॥ [ उत्त० अ० ३६, गा० १७१ ] इन दोनो प्रकार के तियंच जीवों के तीन भेद हैं :- (१) जलचर, (२) स्थलचर और (३) नभचर अर्थात् खेचर । इनके भेद मेरे द्वारा सुनो।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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