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________________ संसारी जीवों का स्वरूप] [४१ इह चउरिदिया एए, ऽणेगहा एवमायओ। लोगस्स एगदेसंमि, ते सम्वे परिकित्तिया ॥३६॥ [ उत्त० अ० ३६, गा० १४५ से १४६ ] चतुरिन्द्रिय जीव दो प्रकार के कहे गये है :-पर्याप्त और अपर्याप्त । इनके भेद मुझसे सुनो। ___ अन्धक, पौतिक, मक्षिका, मशक, भ्रमर, कीट, पतग, बगाई, और कुकण, कर्कुट, सिंगरीटी, नन्द्यावर्त, बिच्छू , खड-मकडी, भृगरीटक, अक्षिवेधक, अक्षिल, मागध, अक्षिरोडक, विचिन, चित्रपत्रक, उपधि, जलका, जलकारी, तन्निक, ताम्रक आदि को चार इन्द्रियवाले जीव माना है। ये सब लोक के एक भाग में स्थित है (न कि सर्वत्र)। पंचिंदिया उ जे जीवा, चउबिहा ते चियाहिया। नेरड्या तिरिक्खाय, मणुया देवा य आहिया ॥३७॥ उत्त० अ० ३६, गा० १५५ ] जो जीव पचेन्द्रिय है, वे चार प्रकार के कहे गये है :- नारकीय, तिर्यन्च, मनुष्य और देव । नेरइया सत्तविहा, पुढवीसु सत्तसू भवे । रयणाभ-सकराभा, चालुयाभा य आहिया ॥३८॥ पंकामा य धूमाभा, तमा तमतमा तहा। इइ नेरइया एए, सत्तहा परिकित्तिया ॥३६॥ [उत्त० अ० ३६, गा० १५६-१५७ }
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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