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________________ ३४] [श्री महावीर-चचनामृत साहारणसरीराओ, ऽणेगहा ते पकित्तिया । आलूए मूलए चेव, सिगवेरे तहेव य ॥१७॥ [उत्त० न. ३६, गा०६२ ते १६] वनस्पतिकायिक जीव सूक्ष्म और बादर इस तरह दो प्रकार के हैं और उनके प्रत्येक के पुनः पर्याप्त और अपर्याप्त-ऐसे दो प्रकार होते हैं। जो वादर पर्याप्त है, वे दो प्रकार के कहे गये है:-साधारणगरीरी तथा प्रत्येक-शरीरी। प्रत्येक-गरीरी के अनेक भेद कहे गये हैं। जैसे कि-वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, तृण, वलय, पर्वज, कूहण, जलव्ह, औषधि, हरितकाय आदि । साधारण-गरीरी भी अनेकविध कहे गये है। जैसे कि-आल, मूली, शृंगवेर आदि। विवेचन-वनस्पतिकायिक सूक्ष्म जीव भी पृथ्वीकायिक मूक्ष्मजीवों के समान ही सूक्ष्म हैं और वे समस्त लोक मे व्याप्त है। अनेक जीवों का एक समान गरीर हो, वह साधारण ( तमान) गरीरी कहलाता है और एक जीव के एक ही शरीर हो, वह प्रत्येक शरीरी कहलाता है। यहां इतना स्मरण रखना चाहिये किफल, पुष्प, छाल, लकडी, मूल, पत्ते और बीज-इन प्रत्येक का स्वतन्त्र गरीर माना गया है। साधारण-गरीरो को साधारण वनस्पति और प्रत्येकन्यरीरो को प्रत्येक वनस्पति कहा जाता है। इन दोनों वनस्पतियों को
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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