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(७४) पुरुषाकारबिना वरदाया। कभीनहींहोवेआगे॥॥१ सूखा वृक्षको जल जो सींचे । फलफूल नहीं लागे॥ मृत्युकको अवाज लगाया । कबू नींद नहीं
जागे ॥ अकल ॥ २ ॥ खोजाको समशेर बन्धाकर। रणजंगमें करे आगे॥ तेग उठावण वेला खोजा । पाठाफिरकरभागे|अ३ कृपणकी घणी करी बडाइ । दान हाथसे मांगे ॥ नारी बांझके चडे नहीं पानो । खर नहीं बोले
सिंघ आगे॥ अकल ॥ ४ ॥ अधर्मीको धर्मी बनायां । शुद्ध मार्ग नहीं लागे। वारा वर्षे पाणीम रहेतो । विष विष भाव नहीं
त्यागे ॥ अकल ॥ ५ ॥ कायर को वैराग्य चढावे । कर २ सिन्धू रागे ॥ हीरालाल सूरवीरहोवे तो। तुर्तविपतीको त्यागे॥६