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________________ (१३०) यो गढ लंका है अति वंका । तोडेगा त्रण परेरे॥ कोटी मणकी सिला उठाई । लक्ष्मण बलसिरी रेते हमतो तुमको देत चेताइ । बारोवार केरीरे ॥ मानो कछू नहीं मानोगे तो।हम है दोष परेशातेरी॥६॥ बुद्धि कुबुद्धि भइ रावणकी । कर्ता वोही भरेरे॥ कहेहीरालाल दयालकीवाणी। पुण्यकीजहाजतिरेरे सीताजीकीखबरहनुमानजीलाये॥राग-आसावरी॥ पवनसुत खबरकरनकोजावे। सीताबैठी कौनस्वभावे॥ सबहीभूपतमिसलतबनाई । हनुमंतकोजोबुलावे ॥ रामकहेतूंजागढलङ्का । संदेसोजायचेतावे | प॥१॥ मुद्रिका मम हाथ जो केरी। हाथो हाथ दिरावे ॥ पाछोवलतोलाजेसेलाणी। हमको अमानत आवे॥पर चरण नमी मुद्रिका लीनी नहीं जरा देर लगावे ॥ महेन्द्र नानासे जंग करीने। तुर्त हीलंका सिधावे॥प३
SR No.010456
Book TitleJain Subodh Ratnavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Maharaj
PublisherPannalal Jamnalal Ramlal Kimti Haidrabad
Publication Year1913
Total Pages221
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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