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________________ [ ६ ] रोग दोष विन शोभन मूरति, मुकतिनाथ अविकारी ॥ चल० ॥१॥ क्रोध बिना किमि करम विनाशें, यह अचरज अन भारी ॥ चल० ॥२॥ बचन अनक्षर लब जिय समझै, भाषा न्यारी न्यारी ॥ ॥ चल० ॥३॥ चतुरानन सव खलक विलोकै, पूरव मुख प्रभुकारी ॥ चल० ॥४॥ केवल ज्ञान आदि गुण प्रगटे, नेक न मान कियारी ॥ चल० ॥ ५ ॥ प्रभुकी महिमा प्रभु न कहि सकैं, हम तुम कौन विचारी ॥ चल० ॥६॥ द्यानत नेमिनाथ विन आलो कह मौकौंको तारी ॥ चल० ॥७॥ (११) राग सोरठ। रुल्यो चिरकाल, जगजाल चहुंगति विौं, आज जिनराज तुम शरन आयो ।टेका। सह्यो दुख घोर, नहिं छोर आवे कहत, तुमसौं कछु छिप्यो नहि तम बतायो । रुल्यो० ॥१॥ तू ही संसार तारक नहीं दूसरो, ऐसो मुह भेद न किन्ही सुनायो । रुत्यो० ॥२॥ सकल सुर असुर नरनाथ बंदत चरन. नाभिनन्दन निपुन मुनिन ध्यायो॥ ॥ रुल्यो० ॥३॥ तू ही अरहन्त भगवन्त गुणवन्त प्रभु, खुले मुझ भाग अब दरश पायो ॥ रुल्यो०
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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