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________________ [ ५ ] || काहे० ||१|| सब दरवनिकी तीन कालकी, विधि न्यारीकी न्यारी । केवलज्ञानविषै प्रतिभासी, सो सो हवै है सारी || काहे० ॥ २॥ सोच किये बहु बंध बढ़त है, उपजत है दुख वारी । चिता चिता समान बखानी, बुद्धि करत है कारी ॥ काहे० ॥ ३ ॥ रोग सोग उपजत चिन्तातैं, कहौ कौन गुनवारी । द्यानत अनुभव करि शिव पहुंचे जिन चिन्ता सब जारी || काहे० ||४|| ( ६ ) राग केदारो | रे जिय ! जनम लाहो लेह ||टेक || चरन ते जिन भवन पहुंचें, दान दें कर जेह ||रे जिय० ॥ १ ॥ उर सोई जामै दया है, अरु रुधिरको गेह । जीभ सो जिननाम गावै, सांच सौ करें नेह ॥ रे जिय० ||२|| आंख ते जिनराज देखें, और आंखें खेह | श्रवन ते जिनवचन सुनि शुभ, तप तपै सो देह ॥ रे जिय० ॥ ३॥ सफल तन इह भांति हुवे है, और भाँति न केह । हवै सुखी मन राम ध्यावो, कहैं सदगुरु येह ॥ रे जिय० ॥४॥ ( १० ) चल देखें प्यारी, नेमि नवल व्रतधारी ॥ टेक ॥
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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