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________________ [ ७ ] ॥४॥ सिद्ध हौं शुद्ध हौं बुद्ध अविरुद्ध हौं, ईश जगदीश बहु गुणनि गायो ॥ रुल्यो० ॥५॥ सर्व चिन्ता गई बुद्धि निर्मल भई, जब हि चित जुगल चरननि लगायो ॥ रुल्यो० ॥६॥ भयो निहचिन्त द्यानत चरन शर्न गयि, तार अब नाथ तेरो कहायो । रुल्यो० ॥ ७ ॥ (१२) __कर कर आतमहित रे प्रानी ॥टेक। जिन परिनामनि बंध होत है, सो परनति तज दुखदानी ॥ कर०॥॥ कौन पुरुष तुम कहां रहत हो, किहिकी संगति रति मानी । जे परजाय प्रगट पुदगलमय, तेतै क्यों अपनी जानी ॥ कर० ॥२॥ चेतनजोति झलक तुझ माहीं, अनुपम सो तें विसरानी । जाकी पटतर लगत आन नहि दीप रतन शशि स्नूरानी ॥ कर० ॥३॥ आपमें आप लखो अपनो पद, द्यानत करि तन मन वानी। परमेश्वरपद आप पाइये, यौँ भाषे केवलज्ञानी ।। (१३) राग विहागरो। जानत क्यों नहिं रे, हे नर आतम ज्ञानी ॥ ॥टेक॥ रागदोष पुद्गलकी संगीत, निहचै शुद्धनि
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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