SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव ! तू भ्रमत सदीव अकेला । संग साथी कोई नहिं तेरा ॥ टेक ॥ अपना सुखदुख आपहि भुगतै, होत कुटुम्ब न भेला। स्वार्थ भयें सब विछरि जात हैं, विघट जात ज्यों मेला ॥१॥ रक्षक कोइ न पूरन ह जब, आयु अन्तको बेला। फूटत पारि बँधत नहों जैसें, दुद्धर-जलको ठेला ॥२॥तन धन जीवन विनशि जात ज्यों, इन्द्रजालका खेला। भागचन्द इमि लख करि भाई हो सतगुरुका चेला।। ६६ ख्याल। बिन काम ध्यानमुद्राभिराम, तुम हो जगनायकजी ॥ टेक ॥ यद्यपि, वीतराग मय तद्यपि, हो शिवदायकजी ॥ विन काम० ॥१॥ रागी देव आप ही दुखिया, सो क्या लायकजी ॥ विन काम ॥२॥ दुर्जय मोह शत्रु हनवे को, तुम वच शायक जी ॥ विनकाम० ॥३॥ तुम भवमोचन ज्ञान सुलोचन, केवल क्षायक जी ॥विन काम०॥४॥ भागचन्द भागनौं प्रापति, तुम सब ज्ञायकजी॥ विन०॥॥ परनति सब जीवनकी, तीन भाँति वरनी एक
SR No.010454
Book TitlePrachin Jainpad Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvani Pracharak Karyalaya Calcutta
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages427
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy